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Selected Sakar ( साकार) - Avyakt ( अव्यक्त ) murli - Essence ( सार ) - Hindi

इस पोस्ट में साकार व अव्यक्त मुरलीयों से चुने हुए महावाक्य दिये गए हैं। In this post selected godly versions from Sakar and Avyakt murlis are given

Table of Contents

  

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22-1-23 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स - प्रैक्टिकल कर्म याने प्रयोग पर अटेंशन

आज 22-1-23 की अव्यक्त वाणी में पूर्ण रूप से प्रैक्टिकल कर्म याने प्रयोग पर अटेंशन दिलाया है जिसमें इस पॉइंट में सार आ गया है *है सब कुछ लेकिन समय पर प्रयोग करना और प्रयोग सफल होना इसको कहा जाता है ज्ञान स्वरूप आत्मा। ऐसे ज्ञान स्वरूप आत्मायें अति समीप और अति प्रिय हैं।* चार्ट से अटेंशन में मदद मिलती है इसलिए भेजा गया था । कितना योग किया.. कितनी बार वाणी पढ़ी इसका चार्ट ही काफी नहीं है इन सब का लक्ष्य क्या है *संस्कार परिवर्तनदैवी गुणों की धारणाविकारों पर विजय सूक्ष्म रूप से भी और सभी तक परमात्म संदेश पहुँचाना याने सेवा* परंतु पहले स्व पर प्रयोग.. *स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन।*

 

            11-12-22 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  दूसरों को मेरे को नहीं बनाना हैमुझे बनना है

11-12-22 की अव्यक्त मुरली से मुख्य सारगर्भित पॉइंट: । दूसरे ऐसे करें तो मैं अच्छा रहूँदूसरा सहयोग दे तो मैं सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनूँनहीं। इस लेने के बजाए *मास्टर दाता बन सहयोगस्नेहसहानुभूति देना ही लेना है*। याद रखना ब्राह्मण जीवन का अर्थ ही है *‘देना ही लेना है'*, देने में ही लेना हैइसलिए *दृढ़ प्रतिज्ञा का आधार है - स्व को देखनास्व को बदलनास्वमान में रहना*। स्वमान है ही मास्टर दाता-पन का। प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए प्लैन बहुत अच्छे-अच्छे बनाते होपुरुषार्थ भी बहुत करते रहते हो लेकिन पुरुषार्थ वा प्लैन को कमजोर करने का स्क्रू एक ही है *‘अलबेलापन'*। वह भिन्न-भिन्न रूप में आता है और सदा नये-नये रूप में आता है तो इस ‘अलबेलेपनके लूज़ स्क्रू को टाइट करो। *यह तो होता ही हैनहीं। होना ही है। चलता ही हैहोता ही है यह है अलबेलापन। हो जायेगा - देख लेनाविश्वास करो ।* *समझनाचाहना और करना* - तीनों को समान बनाओ। *तीनों को समान करना अर्थात् बाप समान बनना*।चिटकी पर लिखना कोई बड़ी बात नहीं। *मस्तक पर दृढ़ संकल्प की स्याही* से लिख दो। लिखना आता है ना। *जान चली जाये लेकिन प्रतिज्ञा नहीं जाये ऐसा दृढ़ संकल्प ही ‘बाप समानसहज बनायेगा*। नहीं तो कभी मेहनतकभी मुहब्बत इसी खेल में चलते रहेंगे।

                            

            20-11-22 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  स्वयं और बाप की प्रत्यक्षता कैसे होगी

20-11-22 अव्यक्त मुरली की इस विशेष महावाक्य पर मनन जरूर करें ।* बापदादा को सबसे ज्यादा रहम उस समय आता है जब बच्चे कोई भी शक्ति को समय पर कार्य में नहीं लगा सकते हैं। उस समय क्या करते हैंजब कोई बात सामना करती तो बाप के सामने किस रूप में आते हैंज्ञानी-भक्त के रूप में आते हैं। भक्त क्या करते हैंभक्त सिर्फ पुकार करते रहते कि यह दे दो। भागते बाप के पास हैंअधिकार बाप पर रखते हैं लेकिन रूप होता है रॉयल भक्त का। और *जहाँ अधिकारी के बजाए ज्ञानी-भक्त अथवा रॉयल भक्त के रूप में आते हैंतो जब तक भक्ति का अंश हैतो भक्ति का फल सद्गति अर्थात् सफलतासद्गति अर्थात् विजय नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि जहाँ भक्ति का अंश रह जाता वहाँ भक्ति का फल ज्ञान अर्थात् सर्व प्राप्ति नहीं हो सकतीसफलता नहीं मिल सकती। भक्ति अर्थात् मेहनत और ज्ञान अर्थात् मुहब्बत।* अगर भक्ति का अंश है तो मेहनत जरूर करनी पड़ती और भक्ति की रस्म-रिवाज है कि जब भीड़ (मुसीबत) पड़ेगी तब भगवान् याद आयेगानहीं तो अलबेले रहेंगे। ज्ञानी-भक्त भी क्या करते हैंजब कोई विघ्न आयेगा तो विशेष याद करेंगे। यहाँ चेहरे की बात तो नहीं लेकिन चलन ही चित्र है। तो *हर चलन से बाप का अनुभव हो इसको कहते हैं बाप समान*। तो समीप रहना चाहते हो या दूरइस एक जन्म में *संगम पर स्थिति में जो समीप रहता हैवह परम-धाम में भी समीप है और राजधानी में भी समीप है*। एक जन्म की समीपता अनेक जन्म समीप बना देगी। हर कर्म को चेक करो। *बाप समान है तो करोनहीं तो चेंज कर दो* *पहले चेक करोफिर करो।* ऐसे नहींकरने के बाद चेक करो कि यह ठीक नहीं था। *ज्ञानी का लक्षण है - पहले सोचेफिर करे। अज्ञानी का लक्षण है - करके फिर सोचते।* 

            5-6-22 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  स्वयं और बाप की प्रत्यक्षता कैसे होगी

5-6-22 की अव्यक्त वाणी में स्वयं और बाप की प्रत्यक्षता कैसे होगी इस पर विचार करने और स्वयं की तैयारी हेतु revise करने योग्य मुख्य पॉइंट्स:* *अंत में प्रत्यक्षता की विधि* अभी तपस्या द्वारा प्राप्तियों को स्वयं *अपने जीवन में और सर्व के सम्बन्ध-सम्पर्क में प्रत्यक्ष करो*। अपने आपमें अनुभव करते हो लेकिन अनुभव को सिर्फ मन-बुद्धि से अनुभव कियायहाँ तक नहीं रखो। उनको *चलन और चेहरे* तक लाओ*सम्बन्ध-सम्पर्क* तक लाओ। तब पहले *स्वयं में प्रत्यक्ष होंगेफिर सम्बन्ध में प्रत्यक्ष होंगे फिर विश्व की स्टेज पर प्रत्यक्ष होंगे*। तब *प्रत्यक्षता का नगाड़ा* बजेगा। जैसे आपके यादगार शास्त्रों में कहते हैं - शंकर ने तीसरी आंख खोली और विनाश हो गया। तो *शंकर अर्थात् अशरीरी तपस्वी रूप*। विकारों रूपी सांप को गले का हार बना दिया। *सदा ऊंची स्थिति और ऊंचे आसनधारी*। यह *तीसरी आंख अर्थात् सम्पूर्णता की आंखसम्पन्नता की आंख।*

*जब आप तपस्वी सम्पन्नसम्पूर्ण स्थिति सेविश्व परिवर्तन का संकल्प करेंगेतो यह प्रकृति भी सम्पूर्ण हलचल की डांस करेगीउपद्रव मचाने की डांस करेगी।* आप अचल होंगेऔर वह हलचल में होगी - क्योंकि इतने सारे विश्व की सफाई कौन करेगामनुष्यात्माएं कर सकती हैंयह वायुधरतीसमुद्र जल - इनकी हलचल ही सफाई करेगी! तो ऐसी सम्पूर्णता की स्थिति इस तपस्या से बनानी है। *प्रकृति भी आपका संकल्प से आर्डर तब मानेगीजब पहले आपके स्वयं केसदा के सहयोगी कर्मेन्द्रियां - मन-बुद्धि-संस्कार - आर्डर मानें।* अगर स्वयं केसदा के सहयोगी आर्डर नहीं मानतेतो प्रकृति क्या आर्डर मानेगी*इतनी पॉवरफुल तपस्या की ऊंची स्थिति होजो सर्व के एक संकल्पएक समय पर उत्पन्न हो। सेकेण्ड का संकल्प हो ‘परिवर्तन’ - और प्रकृति हाज़िर हो जाये!*

*Today, in the avyakt vani of 5-6-22, the main points to consider and revise for self-preparation in order to reveal self and the revelation of Father to take place:* *Revelation process at end*

Now reveal the attainment you have claimed from *doing tapasya in your life and in your relationships and connections with all others.* You do experience this in yourself, but you mustn’t just keep your experiences in your mind and intellect. Let them come into your *behaviour and on your faces.* Put them into *your relationships and connections*Only then will they first be revealed within you, then they will be revealed in your relationships, and they will then be revealed on the stage of the world.* The *drums of revelation* will then beat. Your memorial in the scriptures says that Shankar opened his third eye and destruction took place. *Shankar means the bodiless stage, the tapaswi form*. This means to make the snake of vices into a garland around your neck and *constantly experience an elevated stage and be seated on an elevated seat.* The *third eye* means *the eye of becoming perfect, the eye of becoming complete.*

*When you ‘tapaswis’ are in your COMPLETE stage, and have the thought of ‘World Transformation’, then this Nature will dance the dance of complete upheaval; it will dance the dance of creating calamities.* You will be unshakeable, and it (Nature) will create upheaval. Why is that? Who would clean up the whole world? Could human souls do that? So the upheaval of this air, this earth, and the water of the ocean will cleanse EVERYTHING! You have to create such a COMPLETE stage with this ‘tapasya’. *Nature will accept your order through your thoughts ONLY when your constantly co-operative faculties mind, intellect and sanskars - FIRST accept your order.* If your constantly co-operative faculties do not accept your order, how would Nature accept your order? *Let there be such a high stage of powerful ‘tapasya’ that EVERYONE has the SAME thought at the SAME time. Nature should become present (in the task of World Purification & World Transformation) with your (PURE & POWERFUL) thought of one second of (World) ‘Transformation’.

      16-1-22 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  सेवा पर   

 *आज 16-1-22 की अव्यक्त मुरली में बापदादा ने सेवा पर विशेष महावाक्य उच्चारें हैं* सेवा कैसे बढ़ेगी, अच्छे-अच्छे जिज्ञासु पता नहीं कब आयेंगे, कब तक सेवा करनी पड़ेगी - यह सोचते तो नहीं हो? *असोच बनने से ही सेवा बढ़ेगी, सोचने से नहीं बढ़ेगी*। असोच बन *बुद्धि को फ्री रखेंगे* तब बाप की शक्ति मदद के रूप में अनुभव करेंगे। सोचने में ही बुद्धि बिजी रखेंगे तो बाप की टचिंग, बाप की शक्ति ग्रहण नहीं कर सकेंगे। *बाबा और हम - कम्बाइन्ड हैं, करावनहार और करने के निमित्त मैं आत्मा। इसको कहते हैं असोच अर्थात् एक की याद*। शुभचिंतन में रहने वाले को कभी चिंता नहीं होती। *जहाँ चिंता है वहाँ शुभचिंतन नहीं और जहाँ शुभचिंतन है वहाँ चिंता नहीं*।

           19-12-21 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  दिव्य ब्राह्मण जन्म के भाग्य की रेखाए 

इस वाणी में यह दो विशेष बातों पर चिंतन व अमल करना चाहिए । 1. *निराकारी, निर्विकारी और निरहंकारी यह 3 वरदानों को प्रैक्टिकल में लाने की विधि* *निराकारी* स्थिति में स्थित होने के बिना किसी भी आत्मा को सेवा का फल नहीं दे सकते क्योंकि आत्मा का तीर आत्मा को लगता है। स्वयं सदा इस स्थिति में स्थित नहीं हैं तो जिनकी सेवा करते वह भी सदा स्मृति-स्वरूप नहीं बन सकते। ऐसे ही *निर्विकारी*, कोई भी विकार का अंश अन्य आत्मा के शूद्र वंश को परिवर्तन कर ब्राह्मण वंशी नहीं बना सकता। उस आत्मा को भी मेहनत करनी पड़ती है इसलिए मुहब्बत का फल सदा अनुभव नहीं कर सकते। *निरहंकारी* सेवा का अर्थ ही है फलस्वरूप बन झुकना। बिना निर्मान बने निर्माण अर्थात् सेवा में सफलता नहीं मिल सकती। तो निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी - इन तीनों वरदानों को सदा सेवा में प्रैक्टिकल में लाना, इसको कहते हैं अखण्ड भाग्य की रेखा। 2. *माया कब आती है आने की मार्जिन क्या है ?* अगर बुद्धि खाली रही तो हलचल रहेगी। कोई भी चीज़ अगर फुल भरी नहीं होती तो उसमें हलचल होती है। तो भरपूर होने की निशानी है कि माया को आने की मार्जिन नहीं है। माया ही हिलाती है। तो माया आती है या नहीं? संकल्प में भी आती है? माया के राज्य में तो आधाकल्प अनुभव किया और अभी अपने राज्य में जा रहे हो। जब मायाजीत बनेंगे तब फिर अपना राज्य आयेगा और मायाजीत बनने का सहज साधन - सदा प्राप्तियों से भरपूर रहो। कोई एक भी प्राप्ति से वंचित नहीं रहो। सर्व प्राप्ति हो। ऐसे नहीं - यह तो है, एक बात नहीं तो कोई हर्जा नहीं। अगर जरा भी कमी होगी तो माया छोड़ेगी नहीं, उसी जगह से हिलायेगी। तो माया को आने की मार्जिन ही न हो। आ गई, फिर भगाओ तो उसमें टाइम जाता है। तो मायाजीत बने हो? यह नहीं सोचो - 2 वर्ष या 3 वर्ष में हो जायेंगे। ब्राह्मणों के लिए स्लोगन है - *“अब नहीं तो कभी नहीं''*। अब *समय की रफ्तार* के प्रमाण कोई भी समय कुछ भी हो सकता है, इसलिए *तीव्र पुरुष

            15-8-21 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स -  संस्कार परिवर्तन  

*15 Aug 2021 की अव्यक्त मुरली में दूसरों के संस्कार परिवर्तन क्यों नहीं कर पाते हैं उस पर बाबा ने बहुत ही गहरी बातें बतायीं वह इस प्रकार है अपने प्रति वा दूसरों के प्रति संकल्प करते हो कि यह कमजोरी फिर आने नहीं देंगे वा दूसरे के प्रति सोचते हो कि जिस किसी आत्मा से हिसाब-किताब चुक्तू होने के कारण संकल्प, बोल वा कर्म में संस्कार टकराते हैं, उनका परिवर्तन करेंगे। लेकिन समय पर फिर से क्यों रिपीट होता है? उसका कारण? सोचते हो कि आगे से इस आत्मा के इस संस्कार को जानते हुए स्वयं को सेफ रख उस आत्मा को भी शुभ भावना - शुभ कामना देंगे लेकिन *जैसे दूसरे की कमजोरी देखने, सुनने वा ग्रहण करने की आदत नैचुरल और बहुतकाल की हो गई है, ये आदत नहीं रखेंगे - यह तो बहुत अच्छा, लेकिन उसके स्थान पर क्या देखेंगे! क्या उस आत्मा से ग्रहण करेंगे!* वह बार-बार अटेन्शन में नहीं रखते। यह नहीं करना है, यह तो याद रहता है लेकिन ऐसी आत्माओं के प्रति *क्या करना है, क्या सोचना है, क्या देखना है! वह बातें नैचुरल अटेन्शन में नहीं रहती।* ब्राह्मण जीवन में चलते-फिरते याद का अभ्यास करते हैं तो *याद में शान्ति का अनुभव करते हैं लेकिन खुशी का अनुभव नहीं करते।* सिर्फ शान्ति की अनुभूति कभी माथा भारी कर देती है और कभी निद्रा के तरफ ले जाती है। शान्ति की स्थिति के साथ खुशी नहीं रहती। तो जहाँ खुशी नहीं, वहाँ उमंग-उत्साह नहीं होता और योग लगाते भी अपने से सन्तुष्ट नहीं होते, थके हुए रहते हैं। सदा सोच की मूड में रहते, सोचते ही रहते। खुशी क्यों नहीं आती, इसका भी कारण है क्योंकि सिर्फ यह सोचते हो कि मैं आत्मा हूँ, बिन्दु हूँ, ज्योति-स्वरूप हूँ, बाप भी ऐसा ही है। लेकिन मैं कौनसी आत्मा हूँ! मुझ आत्मा की विशेषता क्या है? जैसे *मैं पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ, मैं आदि रचना वाली आत्मा हूँ, मैं बाप के दिलतख्तनशीन होने वाली आत्मा हूँ। यह विशेषतायें जो खुशी दिलाती है, वह नहीं सोचते हो। सिर्फ बिन्दी हूँ, ज्योति हूँ, शान्त-स्वरूप हूँ... तो निल में चले जाते हो इसलिए माथा भारी हो जाता है।* ऐसे ही जब स्वयं के प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति परिवर्तन का दृढ़ संकल्प करते हो तो स्वयं प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति शुभ, श्रेष्ठ संकल्प वा विशेषता का स्वरूप सदा इमर्ज रूप में रखो तो परिवर्तन हो जायेगा। जैसे *यह संकल्प आता है कि यह है ही ऐसा, यह होगा ही ऐसा, ये करता ही ऐसे है। इसके बजाए यह सोचो कि यह विशेषता प्रमाण विशेष ऐसा है। जैसे कमजोरी का ‘ऐसा' और ‘वैसा' आता है, वैसे श्रेष्ठता वा विशेषता का ‘ऐसा'‘वैसा' है - यह सामने लाओ। स्मृति को, स्वरूप को, वृत्ति को, दृष्टि को परिवर्तन में लाओ। इस रूप से स्वयं को भी देखो और दूसरों को भी देखो।* इसको कहते है स्थान भर दिया, खाली नहीं छोड़ा। जैसे कोई स्थान खाली रहता, उसको अच्छे रूप से अगर यूज़ नहीं करते तो खाली स्थान में किचड़ा या मच्छर आदि स्वत: ही पैदा हो जाते हैं क्योंकि वायुमण्डल में मिट्टी-धूल, मच्छर आदि हैं ही; तो वह फिर से थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ जाता है क्योंकि जगह भरी नहीं है। अपने प्रति वा दूसरों के प्रति ऐसे कभी नहीं सोचो कि देखो हमने कहा था ना कि यह बदलने वाले हैं ही नहीं। लेकिन उस समय *अपने से पूछो कि ‘क्या मैं बदला हूँ?*' स्व परिवर्तन ही औरों का भी परिवर्तन सामने लायेगा। हर एक यह सोचो कि *‘पहले मैं बदलने का एग्जाम्पल बनूँ।'*

          18-4-21  अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स 


इन महत्वपूर्ण ज्ञान बिंदुओं पर मनन कर इसकी गहराई में उतरने लिए विशेष अटेंशन :

 

▪️   संगमयुग के श्रेष्ठ ब्राह्मण जीवन की विशेषतायें यह तीनों ही आवश्यक हैं। योगी तू आत्माज्ञानी तू आत्मा और बाप समान कर्मातीत आत्मा- इन तीनों में से अगर एक भी विशेषता में कमी है तो ब्राह्मण जीवन की विशेषताओं के अनुभवी न बनना अर्थात् सम्पूर्ण ब्राह्मण जीवन का सुख वा प्राप्तियों से वंचित रहना है ।

 

▪️      साथ रहने वाले अर्थात् सहज स्वत: योगी आत्मायें। सदा सेवा में सहयोगी साथी बन चलने वाले अर्थात् ज्ञानी तू आत्मायेंसच्चे सेवाधारी। साथ चलने वाले अर्थात् समान और सम्पन्न कर्मातीत आत्मायें

 

▪️     कई भोलानाथ समझते हैं ना। तो कई बच्चे अभी भी बाप को भोला बनाते रहते हैं। भोलानाथ तो है लेकिन महाकाल भी है। अभी वह रूप बच्चों के आगे नहीं दिखाते हैं। नहीं तो सामने खड़े नहीं हो सकेंगे इसलिए जानते हुए भी भोलानाथ बनते हैंअन्जान भी बन जाते हैं। लेकिन किसलिएबच्चों को सम्पूर्ण बनाने के लिए 

      

14-04-21 - साकार मुरली विशेष पॉइंट्स सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करने का पुरुषार्थ    


१४-४-२१ की साकार मुरली में अव्यक्त मुरली जैसी गहराई और सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करने वाला पुरुषार्थ दिखा  मैं स्वयं इस मुरली को पढ़ते पढ़ते इसकी गहराई में उतरता चला गया और दीप साइलेंस की और शक्ति की अनुभूति होने लगी इसलिए इसके मुख्य मुख्य पॉइंट्स को पुनः revise करने और कराने के लक्ष्य से शेयर कर रहा हूँ । जिन्होंने पढ़ा है वे पुनः पढ़ लें और जिन्होंने अब तक नहीं पढ़ा है वे जरुर पढ़े miss ना करें । इस विशेष मुरली में इन deep विषयों पर विशेष प्रकाश डाला गया है ।

 

▪ किस प्रकार अंतर्मुखी अवस्था में कल्याण व बह्यामुखता से अकल्याण हो जाता है

▪ सर्वोतम सच्ची सर्विस की परिभाषा और मनसा से सहयोग की आवश्यकता

▪ हर्षितमुखता के गुण से क्रोध पर विजय

▪ फर्स्ट ज्ञानसेकण्ड प्रेम याने ज्ञान बिगर प्रेम धारण करने से विचलित होने और माया के जाल में फसने की सम्भावना

▪ सम्पूर्ण समर्पण अथवा पूर्ण स्वाहा होना और ईश्वरीय मन क्या हैकैसे ईश्वर और माया के गुण कार्य करते हैं

▪ साक्षीपन की अवस्था से कैसे पास्ट के विकर्म विनाश होते हैं और फ्यूचर का भाग्य बनता है

▪ ड्रामा के गुह्य राज़ और उसको सही रीती से देखने की विधि

▪ धैर्यवत अवस्था का फाउंडेशनमहत्व और लम्बे समय के पुरुषार्थ की आवश्यकता जरुरी

▪ ज्ञानस्वरूप स्थिति से शांतस्वरुप अवस्था की प्राप्ति और निज शुद्ध संकल्प द्वारा अमन की अवस्था

 

·           हर एक पुरुषार्थी बच्चे को पहले अन्तर्मुख अवस्था अवश्य धारण करनी है। अन्तर्मुखता में बड़ा ही कल्याण समाया हुआ हैइस अवस्था से ही अचलस्थिरधैर्यवतनिर्माणचित इत्यादि दैवी गुणों की धारणा हो सकती है तथा सम्पूर्ण ज्ञानमय अवस्था प्राप्त हो सकती है। अन्तर्मुख न होने के कारण वह सम्पूर्ण ज्ञान रूप अवस्था नहीं प्राप्त होती क्योंकि जो भी कुछ ''महावाक्य“ सम्मुख सुने जाते हैंअगर उसे गहराई में जाकर ग्रहण नहीं करते सिर्फ उन महावाक्यों को सुनकर रिपीट कर देते हैं तो वह महावाक्यवाक्य हो जाते हैं। जो ज्ञान रूप अवस्था में रहकर महावाक्य नहीं सुने जातेउन महावाक्यों पर माया का परछाया पड़ जाता है। अब ऐसी माया के अशुद्ध वायब्रेशन से भरे हुए महावाक्य सुनकर सिर्फ रिपीट करने से खुद सहित औरों का कल्याण होने के बदले अकल्याण हो जाता है ।

 

·           ऐसा नहीं कि किसकी भूल पर सिर्फ सावधान करना इतने तक सर्विस है। परन्तु नहींउनको सूक्ष्म रीति अपनी योग की शक्ति पहुंचाए उनके अशुद्ध संकल्प को भस्म कर देनायही सर्वोत्तम सच्ची सर्विस है और साथ-साथ अपने ऊपर भी अटेन्शन रखना है। न सिर्फ वाचा अथवा कर्मणा तक मगर मन्सा में भी कोई अशुद्ध संकल्प उत्पन्न होता है तो उनका वायब्रेशन अन्य के पास जाए सूक्ष्म रीति अकल्याण करता हैजिसका बोझ खुद पर आता है और वही बोझ बन्धन बन जाता है।

 

·           तुम हर एक चैतन्य फूलों को हरदम हर्षित मुख हो रहना । जब कोई को देखो कि यह क्रोध विकार के वश हो मेरे सामने आता है तो उनके सामने ज्ञान रूप हो बचपन की मीठी रीति से मुस्कराते रहो तो वह खुद शान्तिचत हो जायेगा अर्थात् विस्मृति स्वरूप से स्मृति में आ जायेगा। भल उनको पता न भी पड़े लेकिन सूक्ष्म रीति से उनके ऊपर जीत पाकर मालिक बन जानायही मालिक और बालकपन की सर्वोच्च शिरोमणि विधि है

 

·           ईश्वर जैसे सम्पूर्ण ज्ञान रूप वैसे फिर सम्पूर्ण प्रेम रूप भी है। ईश्वर में दोनों ही क्वालिटीज़ समाई हुई हैं परन्तु फर्स्ट ज्ञानसेकण्ड प्रेम। अगर कोई पहले ज्ञान रूप बनने बिगर सिर्फ प्रेम रूप बन जाता है तो वह प्रेम अशुद्ध खाते में ले जाता है इसलिए प्रेम को मर्ज कर पहले ज्ञान रूप बन भिन्न-भिन्न रूपों में आई हुई माया पर जीत पाकर पीछे प्रेम रूप बनना है। अगर ज्ञान बिगर प्रेम में आये तो कहाँ विचलित भी हो जायेंगे। जैसे अगर कोई ज्ञान रूप बनने के बिगर ध्यान में जाते हैं तो कई बार माया में फंस जाते हैं ।

 

·           जिस घड़ी आप कहते हो कि मैं तन मन धन सहित यज्ञ में स्वाहा अर्थात् अर्पण हो मर चुकाउस घड़ी से लेकर अपना कुछ भी नहीं रहता। उसमें भी पहले तनमन को सम्पूर्ण रीति से सर्विस में लगाना है। जब सब कुछ यज्ञ अथवा परमात्मा के प्रति है तो फिर अपने प्रति कुछ रह नहीं सकताधन भी व्यर्थ नहीं गंवा सकते। मन भी अशुद्ध संकल्प विकल्प तरफ दौड़ नहीं सकता क्योंकि परमात्मा को अर्पण कर दिया। अब परमात्मा तो है ही शुद्ध शान्त स्वरूप। इस कारण अशुद्ध संकल्प स्वत: शान्त हो जाते हैं। अगर मन माया के हाथ में दे देते हो तो माया वैरायटी रूप होने के कारण अनेक प्रकारों के विकल्प उत्पन्न कर मन रूपी घोड़े पर आए सवारी करती है। अगर किसी बच्चे को अभी तक भी संकल्प विकल्प आते हैं तो समझना चाहिए कि अभी मन पूर्ण रीति से स्वाहा नहीं हुआ है अर्थात् ईश्वरीय मन नहीं बना है।

 

·           साक्षीपन की अवस्था अति मीठीरमणीक और सुन्दर है। इस अवस्था पर ही आगे की जीवन का सारा मदार है। जैसे कोई के पास कोई शारीरिक भोगना आती है। उस समय अगर वह साक्षीसुखरूप अवस्था में उपस्थित हो उसे भोगता है तो पास्ट कर्मो को भोग चुक्तू भी करता है और साथ साथ फ्युचर के लिए सुख का हिसाब भी बनाता है। तो यह साक्षीपन की सुखरूप अवस्था पास्ट और फ्युचर दोनों से कनेक्शन रखती है।

 

·            इस वैरायटी विराट ड्रामा की हर एक बात में तुम बच्चों को सम्पूर्ण निश्चय होना चाहिए क्योंकि यह बना बनाया ड्रामा बिल्कुल वफादार है। देखोयह ड्रामा हर एक जीव प्राणी से उनका पार्ट पूर्ण रीति से बजवाता है। भल कोई रांग हैतो वह रांग पार्ट भी पूर्ण रीति से बजाता है। यह भी ड्रामा की नूंध है। जब रांग और राइट दोनों ही प्लैन में नूंधे हुए हैं तो फिर कोई बात में संशय उठानायह ज्ञान नहीं है क्योंकि हर एक एक्टर अपना-अपना पार्ट बजा रहा है। जैसे बाइसकोप में अनेक भिन्न-भिन्न नाम रूपधारी एक्टर्स अपनी-अपनी एक्टिंग करते हैं तो उनको देखकिससे नफरत आवे और किससे हर्षित होवेऐसा नहीं होता है। पता है कि यह एक खेल हैजिसमें हर एक को अपना अपना गुड वा बेड पार्ट मिला हुआ है। वैसे ही इस अनादि बने हुए बाइसकोप को भी साक्षी हो एकरस अवस्था से हर्षितमुख हो देखते रहना है।

 

·           धैर्यवत अवस्था धारण करने का मुख्य फाउण्डेशन - वेट एण्ड सी वेट अर्थात् धैर्य धरनासी अर्थात् देखना। अपने दिल भीतर पहले धैर्यवत गुण धारण कर उसके बाद फिर बाहर में विराट ड्रामा को साक्षी हो देखना है। जब तक कोई भी राज़ सुनने का समय समीप आवे तब तक धैर्यवत गुण की धारणा करनी है। समय आने पर उस धैर्यता के गुण से राज़ सुनने में कभी भी विचलित नहीं होंगे। इसलिए हे पुरुषार्थी प्राणोंजरा ठहरो और आगे बढ़कर राज़ देखते चलो। इस ही धैर्यवत अवस्था से सारा कर्तव्य सम्पूर्ण रीति से सिद्ध होता है। यह गुण निश्चय से बांधा हुआ है। ऐसे निश्चयबुद्धि साक्षी दृष्टा हो हर खेल को हर्षित चेहरे से देखते आन्तरिक धैर्यवत और अडोलचित रहते हैंयही ज्ञान की परिपक्व अवस्था है जो अन्त में सम्पूर्णता के समय प्रैक्टिकल में रहती है इसलिए बहुत समय से लेकर इस साक्षीपन की अवस्था में स्थित रहने का परिश्रम करना है। जैसे नाटक में एक्टर को अपना मिला हुआ पार्ट पूर्ण बजाने अर्थ आगे से ही रिहर्सल करनी पड़ती हैवैसे तुम प्रिय फूलों को भी आने वाली भारी परीक्षाओं से योग बल द्वारा पास होने के लिए आगे से ही रिहर्सल अवश्य करनी है। लेकिन बहुत समय से लेकर अगर यह पुरुषार्थ किया हुआ नहीं होगा तो उस समय घबराहट में फेल हो जायेंगेइसलिए पहला अपना ईश्वरीय फाउण्डेशन पक्का रख दैवीगुणधारी बन जाना है।

 

·           ज्ञान स्वरूप स्थिति में स्थित रहने से स्वत: शान्त रूप अवस्था हो जाती है। जब ज्ञानी तू आत्मा बच्चेइकट्ठे बैठकर मुरली सुनते हैं तो चारों तरफ शान्ति का वायुमण्डल बन जाता है क्योंकि वे कुछ भी महावाक्य सुनते हैं तो आन्तरिक डीप चले जाते हैं। डीप जाने के कारण आन्तरिक उन्हों को शान्ति की मीठी महसूसता होती है  अब इसके लिए कोई खास बैठकर मेहनत नहीं करनी है परन्तु ज्ञान की अवस्था में स्थित रहने से यह गुण अनायास आ जाता है। तुम बच्चे जब सवेरे सवेरे उठकर एकान्त में बैठते हो तो शुद्ध विचारों रूपी लहरें उत्पन्न होती हैंउस समय बहुत उपराम अवस्था होनी चाहिए। फिर अपने निज़ शुद्ध संकल्प में स्थित होने से अन्य सब संकल्प आपेही शान्त हो जायेंगे और मन अमन हो जायेगा  जब आन्तिरक बुद्धियोग कायदे प्रमाण होगा तो तुम्हारी यह निरसंकल्प अवस्था स्वत: हो जायेगी।  ओम् शान्ति 

            9-04-21 - साकार मुरली विशेष पॉइंट्स - योग व देही अभिमानी स्थिति  

 

            ·       योग का महत्त्व ज्ञान की तुलना में और उसकी यथार्थ विधि :


 🔥  सिर्फ चक्र को जानने से इतना फायदा नहीं हैजितना अपने को आत्मा निश्चय कर बाप को याद करने में फायदा है। मैं आत्मा स्टार हूँ। फिर बाप भी स्टार अति सूक्ष्म है। वही सद्गति दाता है। उनको याद करने से ही विकर्म विनाश होने हैं। इस तरीके से कोई भी निरन्तर याद नहीं करते। देही-अभिमानी नहीं बनते हैं। घड़ी-घड़ी यह याद रहे मैं आत्मा हूँ। बाप का फरमान है मुझे याद करो तो विकर्म विनाश होंगे। मैं बिन्दी हूँ। यहाँ पार्टधारी आकर बना हूँ। मेरे में 5 विकारों की कट चढ़ी हुई है। आइरन एज़ में हैं। अब गोल्डन एज़ में जाना है इसलिए बाप को बहुत प्यार से याद करना है। इस रीति बाप को याद करेंगे तब कट निकल जायेगी।

 

🔥 मैं आत्मा हूँमेरे में 84 जन्मों का पार्ट भरा हुआ है। बाप भी बिन्दी हैउनमें सारा ज्ञान है। उनको याद करना है। यह बातें कोई भी समझते नहीं। मुख्य बात समझते नहीं हैं।

 

🔥 आत्मा क्या हैउनमें कैसे 84 जन्मों का पार्ट है। वह भी अविनाशी है। यह याद करनाअपने को बिन्दी समझना और बाप को याद करना जिससे विकर्म विनाश हों - इस योग में कोई भी तत्पर नहीं रहते हैं। इस याद में रहें तो बहुत लवली हो जाएं।

 

🔥 बच्चे सिर्फ ज्ञान का चक्र बुद्धि में फिराते हैं। बाकी मैं आत्मा हूँबाबा से हमको योग लगाना हैजिससे आइरन एज़ से निकल गोल्डन एज़ में जायेंगे। मुझ आत्मा को बाप को जानना हैउसकी याद में ही रहना है, यह बहुतों का अभ्यास कम है। सजा न खाने का उपाय है सिर्फ याद में रहना। योग ठीक नहीं होगा तो धर्मराज की सज़ायें खायेंगे।


·       देही अभिमानी बनने और ऊँच पद पाने की विधि :


 

🪔 देही-अभिमानी बहुत शान्त रहते हैं। समझते हैं मुझे साइलेन्स में जाना है। निराकारी दुनिया में जाकर विराजमान होना है। हमारा पार्ट अभी पूरा हुआ। बाप का रूप छोटा बिन्दी। वह कोई बड़ा लिंग नहीं है। बाबा बहुत छोटा है। वही नॉलेजफुलसर्व के सद्गति दाता हैं। मैं आत्मा भी नॉलेजफुल बन रहा हूँ। ऐसा चिंतन जब चले तब ऊंच पद पा सकें।

 

🪔 जब अपने को आत्मा निश्चय कर बाप को याद करें तब सफलता मिले। नहीं तो सफलता बहुत थोड़ी मिलती है। समझते हैं हमारे में बहुत अच्छा ज्ञान है। वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी हम जानते हैं। परन्तु योग का चार्ट नहीं बताते हैं। मुश्किल कोई हैं जो इस अवस्था में रहते हैं अर्थात् अपने को आत्मा समझ बाप को याद करते हैं। 


4-4-21 अव्यक्त मुरली विशेष पॉइंट्स रिवाइज्ड 6-12-87 -  सिद्धि का आधार - श्रेष्ठ वृत्ति' 


         रविवार 4-4-21 याने 6-12-87 की रिवाइज्ड अव्यक्त मुरली जिसका टाइटल है  सिद्धि का आधार - श्रेष्ठ वृत्ति' बहुत ही पावरफुल और सारगर्भित लगा । उसमें से चुने हुए कुछ मुख्य व महत्वपूर्ण ज्ञान रत्न ब्राह्मण परिवार में लाभार्थ शेयर कर रहा हूँ ताकि जिन्होंने अब तक पूरी मुरली नहीं पढ़ी है वे सार रूप में अवश्य पढ़ लें ।

 

·           हर एक विशेषता वा गुण का महत्व समय पर होता है । होते हुए भी समय पर कार्य में नहीं लगाते तो अमूल्य होते हुए भी उसका मूल्य नहीं होता  जिस समय जो विशेषता धारण करने का कार्य है उसी विशेषता का ही मूल्य है। इसी से नंबर बन जाते हैं । परखना और निर्णय करना यही दोनों शक्तियां नम्बर आगे ले जाती हैं। जब यह दोनों शक्तियां धारण हो जाती तब समय प्रमाण उसी विशेषता से कार्य ले सकते। होलीहंस अर्थात् समय प्रमाण विशेषता वा गुण को परख कर वही समय पर यूज़ करे।

 

·     चाहे स्थूल कार्य अथवा रूहानी कार्य हो लेकिन दोनों में सफलता का आधार परखने और निर्णय करने की शक्ति है। किसी के भी सम्पर्क में आते होजब तक उसके भाव और भावना को परख नहीं सकते और परखने के बाद यथार्थ निर्णय नहीं कर पातेतो दोनों कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती - चाहे व्यक्ति हो वा परिस्थिति हो क्योंकि व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी आना पड़ता है और परिस्थितियों को भी पार करना पड़ता है। जीवन में यह दोनों ही बातें आती हैं। तो नम्बरवन होलीहंस अर्थात् दोनों विशेषताओं में सम्पन्न।

 

·          विधि का आधार है श्रेष्ठ वृत्ति। अगर श्रेष्ठ वृत्ति है तो यथार्थ विधि भी है और यथार्थ विधि है तो सिद्धि श्रेष्ठ है ही है। तो विधि और सिद्धि का बीज वृत्ति है। श्रेष्ठ वृत्ति सदा भाई-भाई की आत्मिक वृत्ति हो। यह तो मुख्य बात है ही लेकिन साथ-साथ सम्पर्क में आते हर आत्मा के प्रति कल्याण कीस्नेह कीसहयोग कीनि:स्वार्थपन की निर्विकल्प वृत्ति होनिरव्यर्थ-संकल्प वृत्ति हो।

 

·         आप कहो न कहोसोचो न सोचो लेकिन व्यक्तिप्रकृति - दोनों ही सदा स्वत: ही स्वमान देते रहेंगे। संकल्प-मात्र भी स्वमान के प्राप्ति की इच्छा से स्वमान नहीं मिलेगा। निर्मान बनना अर्थात् पहले  आपकहना। निर्मान स्थिति स्वत: ही स्वमान दिलायेगी।*

 

·       दोनों स्लोगन पहले आप'' और पहले मैं' - दोनों आवश्यक हैं। लेकिन जहाँ पहले मैंहोना चाहिए वहाँ पहले आपकर देतेजहाँ पहले आपकरना चाहिए वहाँ पहले मैंकर देते। बदली कर देते हैं। जब कोई स्व-परिवर्तन की बात आती है तो कहते हो पहले आप', यह बदले तो मैं बदलूँ।  और जब कोई सेवा का या कोई ऐसी परिस्थिति को सामना करने का चांस बनता है तो कोशिश करते हैं - पहले मैंमैं भी तो कुछ हूँमुझे भी कुछ मिलना चाहिए। तो जहाँ पहले आपकहना चाहिएवहाँ मैंकह देते। सदा स्वमान में स्थित हो दूसरे को सम्मान देना अर्थात् पहले आपकरना।सिर्फ मुख से कहो पहले आपऔर कर्म में अन्तर हो - यह नहीं। स्वमान में स्थित हो स्वमान देना है

 

·          एक होती है अभिमान की वृत्तिदूसरी है अपमान की वृत्ति। जो स्वमान में स्थित होता है और दूसरे को स्वमान देने वाला दाता होताउसमें यह दोनों वृत्ति नहीं होगी - यह तो करता ही ऐसा हैयह होता ही ऐसा हैतो यह भी रॉयल रूप का उस आत्मा का अपमान है।

 

·        स्वमान की परिस्थितियों में पहले आपकहना अर्थात् बाप समान बनना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदा ही स्वमान देने में पहले जगत् अम्बा पहले सरस्वती माँपीछे ब्रह्मा बाप रखा। ब्रह्मा माता होते हुए भी स्वमान देने के अर्थ जगत् अम्बा माँ को आगे रखा। हर कार्य में बच्चों को आगे रखा और पुरूषार्थ की स्थिति में सदा स्वयं को पहले मैंइंजन के रूप में देखा। इंजन आगे होता है ना। सदा यह साकार जीवन में देखा कि जो मैं करूँगा मुझे देख सभी करेंगे। तो विधि मेंस्व-उन्नति में वा तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में सदा पहले मैंरखा।

 

·          होली का अर्थ सुनाया था ना। एक होली अर्थात् पवित्र और हिन्दी में हो ली अर्थात् बीती सो बीती। तो जिनकी बुद्धि होली अर्थात् स्वच्छ है और सदा ही जो सेकण्डजो परिस्थिति बीत गई वह हो ली - यह अभ्यास हैऐसी बुद्धि वाले सदा होली अर्थात् रूहानी रंग में रंगे हुए रहते हैंसदा ही बाप के संग के रंग में रंगे हुए हैं।

 

 

 


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Godly Knowledge Treasures : Selected Sakar ( साकार) - Avyakt ( अव्यक्त ) murli - Essence ( सार ) - Hindi
Selected Sakar ( साकार) - Avyakt ( अव्यक्त ) murli - Essence ( सार ) - Hindi
इस पोस्ट में साकार व अव्यक्त मुरलीयों से चुने हुए महावाक्य दिये गए हैं। In this post selected godly versions from Sakar and Avyakt murlis are given
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